सोमवार, मई 03, 2021

पर्यावरण संरक्षण से इंसान संरक्षित...

                              
     मानवीय संस्कृति में वृक्षों का महत्व प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। वेदों , पुरणों , उपनिषदों , वैज्ञानिकों ने वृक्षों को  पर्यावरण का संरक्षण तथा जीव जंतु और इंसान के जीवन का संरक्षण का सशक्त  माध्यम कहा है ।भारतीय ऋषियों ने पीपल , वरगद , आंवला , नीम , केले , तुलसी , अनेक वृक्ष और पौधों को पवित्र मन है । प्रकृति ने इंसान का जीवन सुरक्षा की व्यवस्था की है ।इंसान की सुरक्षा और प्रकृति संरक्षण , पर्यावण को साफ सुथरा रखने के लिये वृक्ष का संरक्षण होना आवश्यक है। 
नीम  - भारतीय मूल का नीम पर्ण- पाती वृक्ष है। यह सदियों से समीपवर्ती देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यानमार (बर्मा), थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका आदि देशों में पाया जाता रहा है। लेकिन विगत लगभग डेढ़ सौ वर्षों में यह वृक्ष भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक सीमा को लांघ कर अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण एवं मध्य अमरीका तथा दक्षिणी प्रशान्त द्वीपसमूह के अनेक उष्ण और उप-उष्ण कटिबन्धीय देशों में भी पहुँच चुका है। नीम का वानस्पतिक नाम इसके संस्कृत भाषा के निंब से व्युत्पन्न है। फूल व पत्तियाँ कोलकाता, पश्चिम बंगाल, भारत में पाए जाते है । नीम एक तेजी से बढ़ने वाला पर्णपाती पेड़ है, जो 15-20 मी (लगभग 50-65 फुट) की ऊंचाई तक पहुंच सकता है और कभी-कभी 35-40 मी (115-131 फुट) तक भी ऊंचा हो सकता है। नीम गंभीर सूखे में इसकी अधिकतर या लगभग सभी पत्तियां झड़ जाती हैं। इसकी शाखाओं का प्रसार व्यापक होता है। तना अपेक्षाकृत सीधा और छोटा होता है और व्यास में 1.2 मीटर तक पहुँच सकता है। इसकी छाल कठोर, विदरित (दरारयुक्त) या शल्कीय होती है और इसका रंग सफेद-धूसर या लाल, भूरा भी हो सकता है। रसदारु भूरा-सफेद और अंत:काष्ठ लाल रंग का होता है जो वायु के संपर्क में आने से लाल-भूरे रंग में परिवर्तित हो जाता है। जड़ प्रणाली में एक मजबूत मुख्य मूसला जड़ और अच्छी तरह से विकसित पार्श्व जड़ें शामिल होती हैं। 20-40 सेमी (8 से 16 इंच) तक लंबी प्रत्यावर्ती पिच्छाकार पत्तियां जिनमें, 20 से लेकर 31 तक गहरे हरे रंग के पत्रक होते हैं जिनकी लंबाई 3-8 सेमी (1 से 3 इंच) तक होती है। अग्रस्त (टर्मिनल) पत्रक प्राय: उनुपस्थित होता है। पर्णवृंत छोटा होता है। कोंपलों (नयी पत्तियाँ) का रंग थोड़ा बैंगनी या लालामी लिये होता है। परिपक्व पत्रकों का आकार आमतौर पर असममितीय होता है और इनके किनारे दंतीय होते हैं।फूल सफेद और सुगन्धित होते हैं और एक लटकते हुये पुष्पगुच्छ जो लगभग 25 सेमी (10 इंच) तक लंबा होता है में सजे रहते हैं। इसका फल चिकना (अरोमिल) गोलाकार से अंडाकार होता है और इसे निंबोली कहते हैं। फल का छिलका पतला तथा गूदा रेशेदार, सफेद पीले रंग का और स्वाद में कड़वा-मीठा होता है। गूदे की मोटाई 0.3 से 0.5 सेमी तक होती है। गुठली सफेद और कठोर होती है जिसमें एक या कभी-कभी दो से तीन बीज होते हैं जिनका आवरण भूरे रंग का होता है। नीम के पेड़ों की व्यवसायिक खेती को लाभदायक  माना जाता है । मक्का के निकट तीर्थयात्रियों के लिए आश्रय प्रदान करने के लिए लगभग 50000 नीम के पेड़ लगाए गए हैं। नीम का पेड़ बहुत हद तक चीनीबेरी के पेड़ के समान दिखता है। नीम का पेड़ सूखे के प्रतिरोध के लिए विख्यात है। सामान्य रूप से यह उप-शुष्क और कम नमी वाले क्षेत्रों में फलता है जहाँ वार्षिक वर्षा 400 से 1200 मिमी के बीच होती है। यह उन क्षेत्रों में भी फल सकता है जहाँ वार्षिक वर्षा 400 मिमी से कम होती है पर उस स्थिति में इसका अस्तित्व भूमिगत जल के स्तर पर निर्भर रहता है। नीम कई अलग-अलग प्रकार की मिट्टी में विकसित हो सकता है, लेकिन इसके लिये गहरी और रेतीली मिट्टी जहाँ पानी का निकास अच्छा हो, सबसे अच्छी रहती है। यह उष्णकटिबंधीय और उपउष्णकटिबंधीय जलवायु में फलने वाला वृक्ष है और यह 22-32° सेंटीग्रेड के बीच का औसत वार्षिक तापमान सहन कर सकता है। यह बहुत उच्च तापमान को तो बर्दाश्त कर सकता है, पर 4 डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान में मुरझा जाता है। नीम एक जीवनदायी वृक्ष है विशेषकर तटीय, दक्षिणी जिलों के लिए। यह सूखे से प्रभावित (शुष्क प्रवण) क्षेत्रों के कुछ छाया देने वाले (छायादार) वृक्षों में एक है। यह एक नाजुक पेड़ नहीं हैं और किसी प्रकार के पानी मीठा या खारा में जीवित रहता है। तमिलनाडु में यह वृक्ष बहुत आम है और इसको सड़कों के किनारे एक छायादार पेड़ के रूप में उगाया जाता है, इसके अलावा लोग अपने आँगन में भी यह पेड़ उगाते हैं। शिवकाशी (सिवकासी) जैसे बहुत शुष्क क्षेत्रों में, इन पेड़ों को भूमि के बड़े हिस्से में लगाया गया है और इनकी छाया में आतिशबाजी बनाने के कारखाने का काम करते हैं। नीम एक बहुत ही अच्छी वनस्पति है जो की भारतीय पर्यावरण के अनुकूल है और भारत में बहुतायत में पाया जाता है। आयुर्वेद में नीम को बहुत ही उपयोगी पेड़ माना गया है। इसका स्वाद  कड़वा होता है लेकिन इसके फायदे अनेक और बहुत प्रभावशाली है । नीम की छाल का लेप सभी प्रकार के चर्म रोगों और घावों के निवारण में सहायक है।नीम की दातुन करने से दांत और मसूड़े स्वस्थ रहते हैं। नीम की पत्तियां चबाने से रक्त शोधन होता है और त्वचा विकार रहित और कांतिवान होती है।  पत्तियां अवश्य कड़वी होती हैं, लेकिन कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना पड़ता है मसलन स्वाद। नीम की पत्तियों को पानी में उबाल उस पानी से नहाने से चर्म विकार दूर होते हैं और ये खासतौर से चेचक के उपचार में सहायक है और उसके विषाणु को फैलने न देने में सहायक है।नींबोली (नीम का छोटा सा फल) और उसकी पत्तियों से निकाले गये तेल से मालिश की जाये शरीर के लिये अच्छा रहता है।नीम के द्वारा बनाया गया लेप बालो में लगाने से बाल स्वस्थ रहते हैं और कम झड़ते हैं। नीम की पत्तियों के रस को आंखों में डालने से आंख आने की बीमारी में लाभ मिलता है ।नीम की पत्तियों के रस और शहद को २:१ के अनुपात में पीने से पीलिया में फायदा होता है और इसको कान में डालने से कान के विकारों में भी फायदा होता है। नीम के तेल की ५-१० बूंदों को सोते समय दूध में डालकर पीने से ज़्यादा पसीना आने और जलन होने सम्बन्धी विकारों में बहुत फायदा होता है।नीम के बीजों के चूर्ण को खाली पेट गुनगुने पानी के साथ लेने से बवासीर में काफ़ी फ़ायदा होता है।नीम घनवटी नामक आयुर्वेद में औषधि है जी की के पेड़ से निकली जाती है। इसका मुख्य घटक नीमघन सत् होता है। यह मधुमेह में अत्यधिक लाभकारी है ।इसका प्रयोग शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता है। यह आयुर्वेद में एक प्रकार की औषधि है जी की नीम  के पेड़ से निकली जाती है।नीम की पाती खाने से मुह की बादबू दाड दर्द दात कुलना शरीर के अंदर के हनिकारिक बैक्टीरिया कैंसर की बिमारी खून साफ करना जी भ से स्वाद चरम रोग आँख न आना आलस न आना शरीर मे ऊर्जा का बना रहना कफ कोल्ड न होना,शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना जैसे के सेकड़ो हज़ारो फायदे हमे नीम की पाती खाने से मिलता है । यह मधुमेह में अत्यधिक लाभकारी है। इसका प्रयोग शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता है। यह जीवाणु नाशक, रक्त्शोधाक एवं त्वचा विकारों में गुणकारी है ।यह बुखार में भी लाभकारी है।
नीम त्वचा के औषधीय कार्यों में उपयोग की जाती है । नीम के उपयोग से त्वचा की चेचक जैसी भयंकर बीमारिया नही होती तथा इससे रक्त शुद्ध होता है । नीम स्वास्थ वर्धक एवं आरयोग्यता प्रदान करने वाला है। ये सभी प्रकार की व्याधियों को हरने वाला है, इसे मृत्यु लोक का कुल्पवृक्ष कहा जाता है। चरम रोग मे इसका विशेष महत्व है।
भारत में नीम का उपयोग एक औषधि के रूप में किया जाता है, आज के समय में बहुत सी एलोपैथिक दवाइयां नीम की पत्ती व उसकी छल से बनती है । नीम के पेड़ की हर अंग फायदेमंद होता है, बहुत सी  बीमारियों का उपचार इससे किया जाता है । भारत में नीम का पेड़ घर में लगाना शुभ माना जाता है ।नीम स्वाद में कड़वा होता है, लेकिन नीम जितनी कड़वी होती है, उतनी ही फायदे वाली होती है ।भारत में नीम का उपयोग एक औषधि के रूप में किया जाता है, आज के समय में बहुत सी एलोपैथिक दवाइयां नीम की पत्ती व उसकी छल से बनती है । नीम के पेड़ की हर अंग फायदेमंद होता है, बहुत सी  बीमारियों का उपचार इससे किया जाता है । भारत में नीम का पेड़ घर में लगाना शुभ माना जाता है ।नीम स्वाद में कड़वा होता है, लेकिन नीम जितनी कड़वी होती है, उतनी ही फायदे वाली होती है । यहां हम आपको नीम के गुण और उसके लाभ के बारे में बता रहे हैं । जिसे आप घर में ही उपयोग कर बहुत बीमारियों का उपचार कर सकते हैं ।
पीपल् - पीपल को अंग्रेज़ी में सैकरेड फिग, संस्कृत में अश्वत्थ कहा जाता है । भारत, नेपाल, श्री लंका, चीन और इंडोनेशिया में पाया जाने वाला बरगद, या गूलर की जाति का एक विशालकाय वृक्ष है जिसे भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है तथा अनेक पर्वों पर इसकी पूजा की जाती है। बरगद और गूलर वृक्ष की भाँति इसके पुष्प भी गुप्त रहते हैं अतः इसे 'गुह्यपुष्पक' कहा जाता है। अन्य क्षीरी (दूध वाले) वृक्षों की तरह पीपल भी दीर्घायु होता है । इसके फल बरगद-गूलर की भांति बीजों से भरे तथा आकार में मूँगफली के छोटे दानों जैसे होते हैं। बीज राई के दाने के आधे आकार में होते हैं। परन्तु इनसे उत्पन्न वृक्ष विशालतम रूप धारण करके सैकड़ों वर्षो तक खड़ा रहता है। पीपल की छाया बरगद से कम होती है, फिर भी इसके पत्ते अधिक सुन्दर, कोमल और चंचल होते हैं। वसंत ऋतु में इस पर धानी रंग की नयी कोंपलें आने लगती है। बाद में, वह हरी और फिर गहरी हरी हो जाती हैं। पीपल के पत्ते जानवरों को चारे के रूप में खिलाये जाते हैं, विशेष रूप से हाथियों के लिए इन्हें उत्तम चारा माना जाता है। पीपल की लकड़ी ईंधन के काम आती है किंतु यह किसी इमारती काम या फर्नीचर के लिए अनुकूल नहीं होती। स्वास्थ्य के लिए पीपल को अति उपयोगी माना गया है। पीलिया, रतौंधी, मलेरिया, खाँसी और दमा तथा सर्दी और सिर दर्द में पीपल की टहनी, लकड़ी, पत्तियों, कोपलों का महत्वपूर्ण योगदान है। भारतीय संस्कृति में पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं। पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है। भगवान कृष्ण कहते हैं- समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ। स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्र में पीपल की प्रार्थना का मंत्र भी दिया गया है। प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज में अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनक द्वारा इसके महत्त्व का वर्णन किया गया है। अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। पीपल के वृक्ष के नीचे मंत्र, जप और ध्यान तथा सभी प्रकार के संस्कारों को शुभ माना गया है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है कि द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए। यज्ञ में प्रयुक्त किए जाने वाले 'उपभृत पात्र' (दूर्वी, स्त्रुआ आदि) पीपल-काष्ट से ही बनाए जाते हैं। पवित्रता की दृष्टि से यज्ञ में उपयोग की जाने वाली समिधाएं भी आम या पीपल की ही होती हैं। यज्ञ में अग्नि स्थापना के लिए ऋषिगण पीपल के काष्ठ और शमी की लकड़ी की रगड़ से अग्नि प्रज्वलित किया करते थे। ग्रामीण संस्कृति में  लोग पीपल की नयी कोपलों में निहित जीवनदायी गुणों का सेवन कर उम्र के अंतिम पडाव में भी सेहतमंद बने रहते हैं। अमावस्या विक्रम कैलेंडर महीने के पन्द्रहवें दिन) हिन्दू कैलेंडर वर्ष में सोमवार को पड़ती है। इस दिन पवित्र पीपल के पेड़ की १०८ बार परिक्रमा कर महिलाएं व्रत रख कर पूजन करती है । भगवान बुद्ध का ज्ञान प्राप्त बोधगया में स्थित पीपल वृक्ष के छांव में में हुआ था ।
बरगद -  बहुवर्षीय विशाल वृक्ष है। इसे 'वट' और 'बड़' कहते हैं। यह  स्थलीय द्विबीजपत्री एंव सपुष्पक वृक्ष है। इसका तना सीधा एंव कठोर होता है। इसकी शाखाओं से जड़े निकलकर हवा में लटकती हैं तथा बढ़ते हुए धरती के भीतर घुस जाती हैं एंव स्तंभ बन जाती हैं। इन जड़ों को बरोह या प्राप जड़ कहते हैं। इसका फल छोटा गोलाकार एंव लाल रंग का होता है। इसके अन्दर बीज पाया जाता है। इसका बीज बहुत छोटा होता है किन्तु इसका पेड़ बहुत विशाल होता है। इसकी पत्ती चौड़ी, एंव लगभग अण्डाकार होती है। इसकी पत्ती, शाखाओं एंव कलिकाओं को तोड़ने से दूध जैसा रस निकलता है जिसे लेटेक्स अम्ल कहा जाता है। बरगद - सनातन धर्म में वट वृक्ष की बहुत महत्ता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति की तरह ही वट,पीपल व नीम को माना जाता है, अतएव बरगद को शिव समान माना जाता है। अनेक व्रत व त्यौहारों में वटवृक्ष की पूजा की जाती
है ।सड़कों पर आते-जाते अक्सर हम कई पेड़ देखते हैं। ये पेड़  ऑक्सीजन और छांव देते हैं।  वैज्ञानिक नाम फाइकस बेंगालेंसिस  है। यह पेड़ लंबे समय तक टिका रहता है। सूखा और पतझड़ आने पर भी यह हरा-भरा बना रहता है और सदैव बढ़ता रहता है। यही कारण है कि इसे राष्ट्रीय वृक्ष का दर्जा प्राप्त है। धार्मिक तौर पर तो यह पूजनीय है ही, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि अपने औषधीय गुणों के कारण यह कई शारीरिक समस्याओं को दूर करने में भी कारगर साबित होता है। यहीं कारण है कि सालों से इसका इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवा में किया जा रहा है। बरगद के पेड़ के सभी भागों (जड़, तना, पत्तियां, फल और छाल) को औषधीय उपयोग में लाया जाता है। इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट (सूजन घटाने वाला) और एंटी-माइक्रोबियल (बैक्टीरिया को नष्ट करने वाला) प्रभाव के कारण इसे दांतों में सड़न और मसूड़ों में सूजन की समस्या को कम करने में सहायक माना गया है । इसकी जड़ को चबाकर नरम करने के बाद मंजन की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से दांतों से संबंधित कई परेशानियां दूर की जा सकती हैं।बरगद के पेड़ के फायदे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में भी काम आ सकते हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक इसकी पत्तियों में कुछ खास तत्व जैसे :- हेक्सेन, ब्यूटेनॉल, क्लोरोफॉर्म और पानी मौजूद होता है। ये सभी तत्व संयुक्त रूप से प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सहायक साबित होते हैं। इस कारण हम कह सकते हैं कि बरगद के पेड़ की पत्तियों का सेवन करने से शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है । बरगद के पेड़ से बवासीर जैसी समस्या को भी दूर किया जा सकता है। बताया जाता है कि बरगद के पेड़ से निकलने वाले दूध में रेजिन, एल्ब्यूमिन, सेरिन, शुगर और मैलिक एसिड जैसे तत्व पाए जाते हैं। ये तत्व संयुक्त रूप से दस्त, डिसेंट्री (दस्त के साथ खून आना) और बवासीर की समस्या में राहत पहुंचाने का काम करते है । बरगद के दूध के फायदे में बवासीर की समस्या से छुटकारा भी शामिल है ।डायबिटीज की समस्या में भी बरगद के पेड़ के फायदे मददगार साबित हो सकते हैं। वजह यह है कि इस पेड़ की जड़ में हाइपोग्लाइसेमिक (ब्लड शुगर को कम करने वाला) प्रभाव पाया जाता है । इसलिए, डायबिटीज की समस्या से राहत पाने के लिए बरगद के पेड़ की जड़ का अर्क पीने की सलाह दी जाती है।डिप्रेशन की समस्या में भी बरगद के पेड़ को लाभकारी माना गया है। दरअसल, बरगद पर किए गए एक शोध में इस बात का जिक्र मिलता है कि बरगद के संपूर्ण पेड़ में कुछ ऐसे तत्व मौजूद होते हैं, जो मानसिक क्षमता को बढ़ाने के साथ चिंता और तनाव की समस्या को दूर करने में सक्षम हैं। वहीं, यह दिमाग की नसों को भी आराम पहुंचाते हैं (4)। अवसाद की समस्या एक मानसिक विकार है, जो चिंता और तनाव के कारण ही जन्म लेती है (5)। इस कारण हम कह सकते हैं कि बरगद की जड़ के फायदे में डिप्रेशन से छुटकारा भी शामिल है।
जैसा कि आपको लेख में पहले भी बताया जा चुका है कि बरगद के पेड़ से निकलने वाले दूध में रेजिन, एल्ब्यूमिन, सेरिन, शुगर और मैलिक एसिड जैसे तत्व पाए जाते हैं। ये तत्व संयुक्त रूप से डायरिया, डिसेंट्री और बवासीर की समस्या में लाभदायक माने जाते हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि डायरिया की समस्या में भी बरगद के दूध के फायदे सकारात्मक परिणाम प्रदर्शित कर सकते हैं।बांझपन और नपुंसकता की समस्या को दूर करने में भी बरगद का पेड़ लाभदायक साबित हो सकता है। बताया जाता है कि इससे निकलने वाले दूध का सेवन पुरुषों में शुक्राणुओं की मात्रा को बढ़ाने और महिलाओं में कई यौन संबंधी समस्याओं को दूर करने में सहायक है । हालांकि, बरगद के दूध के फायदे यौन समस्याओं के लिए फायदेमंद हैं, इस संबंध में अभी और शोध की आवश्यकता है।विशेषज्ञों के मुताबिक बरगद की पत्तियों में कुछ खास तत्व जैसे :- हेक्सेन, ब्यूटेनॉल, क्लोरोफॉर्म और पानी मौजूद होते हैं। ये सभी तत्व संयुक्त रूप से प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सहायक साबित होते हैं। वहीं, इस संबंध में किए गए शोध में इस बात का भी जिक्र मिलता है कि प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने के कारण जोड़ों में दर्द (अर्थराइटिस) की समस्या पैदा हो सकती है। वहीं, इसमें मौजूद एंटी इंफ्लेमेटरी गुण सूजन को रोकने में मदद करते हैं (2)। इस कारण हम कह सकते हैं कि जोड़ों के दर्द की समस्या में इसकी पत्तियों का सेवन लाभकारी सिद्ध हो सकता है।बरगद के पेड़ के औषधीय गुणों में यूरिनरी समस्या को दूर करना भी शामिल है। बताया जाता है कि इस पेड़ के विभिन्न भागों के अर्क का उपयोग इस समस्या को दूर करने के लिए किया जाता है।  दरअसल, उम्र के साथ कई लोगों को यूरिनेशन में तकलीफ होने लगती है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनमें मूत्राशय की नसें इतनी कमजोर हो जाती हैं कि वे मूत्र को नियंत्रित नहीं कर पाते। ऐसे में बरगद के पत्ते का उपयोग काफी असरदार सिद्ध हो सकता है।फोड़े-फुंसी की समस्या त्वचा से संबंधित एक विकार है । बरगद के पेड़ के विभिन्न भागों में कुछ ऐसे तत्व पाए जाते हैं ।त्वचा से संबंधी कई विकारों को दूर करने में सहायक माने जाते हैं (2)। इस कारण हम कह सकते हैं कि फोड़े-फुंसी की समस्या में भी बरगद की जड़ के फायदे पाए जा सकते हैं, लेकिन इस विषय पर अभी और शोध की आवश्यकता है। बरगद के पेड़ से संबंधित औषधीय गुणों पर किए गए एक शोध में पाया गया कि इस पेड़ के जलीय अर्क  का सेवन कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को नियंत्रित कर सकता है (8)। इस कारण यह कहना गलत नहीं होगा कि फल, पत्तियों और छाल के साथ-साथ बरगद के पत्ते का उपयोग बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल को सामान्य स्तर पर ला सकता है।आमतौर पर त्वचा पर बैक्टीरियल इन्फेक्शन के कारण आपको खुजली जैसी समस्या का सामना करना पड़ता है। बरगद में मौजूद एंटी-माइक्रोबियल प्रभाव इस समस्या से राहत दिलाने में सहायक साबित हो सकते हैं (8)। इसके लिए आप बरगद के पत्ते का उपयोग लेप बनाकर कर सकते हैं। इसके अलावा, आप इसकी छाल का लेप भी प्रभावित स्थान पर लगा सकते हैं।जैसा कि आपको लेख में पहले भी बताया जा चुका है कि बरगद के औषधीय गुण के कारण इसके पेड़ के विभिन्न भागों में एंटी इंफ्लेमेटरी और एंटी माइक्रोबियल प्रभाव पाए जाते हैं। इन प्रभावों की मौजूदगी के कारण ही यह त्वचा संबधी कई विकारों को दूर करने में सहायक साबित होता है । बालों का झड़ना एक गंभीर समस्या है, जिसका एक मुख्य कारण बैक्टीरियल इन्फेक्शन  होता है। बरगद में एंटी-माइक्रोबियल गुण पाया जाता है, जो बैक्टीरियल इन्फेक्शन को दूर करने में मदद करता है । इस कारण हम कह सकते हैं कि बरगद के पेड़ की छाल और पत्तियों से बना लेप आपके बालों को स्वस्थ बनाए रखने में  मदद करता है ।बरगद के पेड़ में कई ऐसे रसायन मौजूद होते हैं, जिनके कारण औषधीय गुणों से भरपूर है। बरगद की पत्तियों में प्रोटीन (9.63 प्रतिशत) ,फाइबर (26.84 प्रतिशत) , कैल्शियम (2.53 प्रतिशत) , फास्फोरस (0.4 प्रतिशत) पोषक तत्त्व हैं ।आप बरगद के पेड़ की जड़, छाल और पत्तियों का लेप बनाकर त्वचा अथवा बालों पर उपयोग कर सकते हैं।आप बरगद की जड़, छाल और पत्तियों का अर्क निकाल कर इसे पीने के लिए इस्तेमाल में ला सकते हैं।आप इसके फल को भी सीधे सेवन के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।कुछ विशेष स्थितियों में इसके दूध को जमा करके सेवन के लिए इस्तेमाल में ला सकते हैं।आप बरगद के दूध को मरहम की तरह भी प्रयोग कर सकते हैं। लेप के रूप में इसे दिन में दो से तीन बार और सेवन के लिए इसे एक से दो बार इस्तेमाल किया जा सकता है।लेप को आप प्रभावित स्थान के हिसाब से आवश्यकतानुसार इस्तेमाल कर सकते हैं।वहीं, इसके दूध का सेवन करने के लिए दिन में दो से तीन बूंद तक दूध के साथ लेने की सलाह दी जाती है।इसकी जड़, छाल और पत्तियों से तैयार किए गए अर्क को प्रतिदिन एक से दो चम्मच तक लिया जा सकता है।  बरगद की जड़, छाल, पत्तियों और दूध से लाभ होता है ।
तुलसी - (ऑसीमम सैक्टम) एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय पौधा है। तुलसी का पौधा हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है और लोग इसे अपने घर के आँगन या दरवाजे पर या बाग में लगाते हैं। भारतीय संस्कृति के चिर पुरातन ग्रंथ वेदों में तुलसी के गुणों एवं उसकी उपयोगिता का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त ऐलोपैथी, होमियोपैथी और यूनानी दवाओं में भी तुलसी का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया जाता है ।तुलसी का पौधा क्षुप (झाड़ी) के रूप में उगता है और १ से ३ फुट ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ बैंगनी आभा वाली हल्के रोएँ से ढकी होती हैं। पत्तियाँ १ से २ इंच लम्बी सुगंधित और अंडाकार या आयताकार होती हैं। पुष्प मंजरी अति कोमल एवं ८ इंच लम्बी और बहुरंगी छटाओं वाली होती है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं। नए पौधे मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में उगते है और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है। इसके बाद इसकी वृद्धावस्था आ जाती है। पत्ते कम और छोटे हो जाते हैं और शाखाएँ सूखी दिखाई देती हैं। इस समय उसे हटाकर नया पौधा लगाने की आवश्यकता प्रतीत होती है।
तुलसी की  प्रजातियाँ - ऑसीमम सैक्टम , ऑसीमम वेसिलिकम (मरुआ तुलसी) मुन्जरिकी या मुरसा , ऑसीमम वेसिलिकम मिनिमम। ,आसीमम ग्रेटिसिकम (राम तुलसी ,  वन तुलसी , अरण्यतुलसी ,  ऑसीमम किलिमण्डचेरिकम (कर्पूर तुलसी) , ऑसीमम अमेरिकम (काली तुलसी) , गम्भीरा ,  मामरी , ऑसीमम विरिडी है। ऑसीमम सैक्टम को पवित्र तुलसी माना गया जाता है। इसकी  दो प्रधान प्रजातियाँ हैं- श्री तुलसी की पत्तियाँ हरी होती हैं तथा कृष्णा तुलसी ( श्यामा तुलसी) जिसकी पत्तियाँ नीलाभ-कुछ बैंगनी रंग लिए होती हैं। श्री तुलसी के पत्र तथा शाखाएँ श्वेताभ होते हैं जबकि कृष्ण तुलसी के पत्रादि कृष्ण रंग के होते हैं। गुण, धर्म की दृष्टि से काली तुलसी को  श्रेष्ठ  है । तुलसी में अनेक जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं। अभी भी पूरी तरह से इनका विशप्रमुख सक्रिय तत्व हैं एक प्रकार का पीला उड़नशील तेल जिसकी मात्रा संगठन स्थान व समय के अनुसार बदलते रहते हैं। ०.१ से ०.३ प्रतिशत तक तेल पाया जाना सामान्य बात है। 'वैल्थ ऑफ इण्डिया' के अनुसार इस तेल में लगभग ७१ प्रतिशत यूजीनॉल, बीस प्रतिशत यूजीनॉल मिथाइल ईथर तथा तीन प्रतिशत कार्वाकोल होता है। श्री तुलसी में श्यामा की अपेक्षा कुछ अधिक तेल होता है तथा इस तेल का सापेक्षिक घनत्व भी कुछ अधिक होता है। तेल के अतिरिक्त पत्रों में लगभग ८३ मिलीग्राम प्रतिशत विटामिन सी एवं २.५ मिलीग्राम प्रतिशत कैरीटीन होता है। तुलसी बीजों में हरे पीले रंग का तेल लगभग १७.८ प्रतिशत की मात्रा में पाया जाता है। इसके घटक हैं कुछ सीटोस्टेरॉल, अनेकों वसा अम्ल मुख्यतः पामिटिक, स्टीयरिक, ओलिक, लिनोलक और लिनोलिक अम्ल। तेल के अलावा बीजों में श्लेष्मक प्रचुर मात्रा में होता है। इस म्युसिलेज के प्रमुख घटक हैं-पेन्टोस, हेक्जा यूरोनिक अम्ल और राख। राख लगभग ०.२ प्रतिशत होती है।तुलसी माला १०८ गुरियों की होती है। एक गुरिया अतिरिक्त माला के जोड़ पर होती है इसे गुरु की गुरिया कहते हैं। तुलसी माला धारण करने से ह्रदय को शांति मिलती है।भारतीय संस्कृति में तुलसी को पूजनीय माना जाता है, धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ तुलसी औषधीय गुणों से भी भरपूर है। आयुर्वेद में तो तुलसी को उसके औषधीय गुणों के कारण विशेष महत्व दिया गया है। तुलसी ऐसी औषधि है जो ज्यादातर बीमारियों में काम आती है। इसका उपयोग सर्दी-जुकाम, खॉसी, दंत रोग और श्वास सम्बंधी रोग के लिए बहुत ही फायदेमंद माना जाता है। मृत्यु के समय व्यक्ति के गले में कफ जमा हो जाने के कारण श्वसन क्रिया एवम बोलने में रुकावट आ जाती है। तुलसी के पत्तों के रस में कफ फाड़ने का विशेष गुण होता है इसलिए शैया पर लेटे व्यक्ति को यदि तुलसी के पत्तों का एक चम्मच रस पिला दिया जाये तो व्यक्ति के मुख से आवाज निकल सकती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें