बुधवार, मई 12, 2021

ज्योतिर्लिंग : ऊँ तत्वमसि ...

  
                

  विश्व में भगवान शिव की उपासना तथा भारतीय संस्कृति में ज्योतिर्लिंग , विभिन्न रूप में आराधन किया जाता है । ज्योतिर्लिंग की उपासना भगवान विष्णु और ब्रह्मा ने की है । तत्त्वमसि का रूप ज्योतिर्लिंग है । भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी में विवाद छिड़ जाने के बाद भगवान शिव द्वारा अग्नि स्तम्भ ( ज्योतिर्लिंग  ) उत्पन्न कर विवादों का निष्पादन किया गया है ।

*  भीमशंकर ज्योतिर्लिंग  मंदिर , गोहाटी , असम  - श्री भीमाशंकर मंदिर भोरगिरि गांव खेड़ से 50 कि.मि. उत्तर-पश्चिम पुणे से 110 कि.मि में पश्चिमी घाट के सह्याद्रि पर्वत पर भीमा नदी के उद्गम स्थल पर भीमेश्वर उप ज्योतिर्लिंग है। भीमा नदी  दक्षिण पश्चिम दिशा में बहती हुई रायचूर जिले में कृष्णा नदी से मिलती है।  भगवान शिव का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग है। भीमाशंकर शिव मंदिर भीमाशंकर, निकट पुणे, महाराष्ट्र नागरा शैली में निर्मित है।भीमशंकर महादेव काशीपुर में भगवान शिव का प्रसिद्ध मंदिर और तीर्थ स्थान है। यहां का शिवलिंग काफी मोटा है जिसके कारण इन्हें मोटेश्वर महादेव कहा जाता है। पुराणों में भीमेश्वर मंदिर का  वर्णन मिलता है। आसाम में शिव के द्वाद्श ज्योर्तिलिगों में एक भीमशंकर महादेव का मंदिर है। काशीपुर के मंदिर का उन्हीं का रूप बताया जाता है । श्री भीमशंकर (मोटेश्वर) महादेव मंदिर, काशीपिर, उत्तराखंड - प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र भीमाशंकर मंदिर महाराष्ट्र में पुणे से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित सह्याद्रि नामक पर्वत पर है। यह स्थान नासिक से लगभग 120 मील दूर है। यह मंदिर भारत में पाए जाने वाले बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। 3,250 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर का शिवलिंग काफी मोटा है। इसलिए इसे मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। इसी मंदिर के पास से भीमा नामक एक नदी भी बहती है जो कृष्णा नदी में जाकर मिलती है। पुराणों के अनुसार  भक्त श्रद्वा से इस मंदिर के प्रतिदिन सुबह सूर्य निकलने के बाद 12 ज्योतिर्लिगों का नाम जापते हुए इस मंदिर के दर्शन करता है, उसके सात जन्मों के पाप दूर होते हैं तथा उसके लिए स्वर्ग के मार्ग खुल जाते हैं।भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का वर्णन शिवपुराण में मिलता है। शिवपुराण में कहा गया है कि पुराने समय में कुंभकर्ण का पुत्र भीम नाम का एक राक्षस था। उसका जन्म ठीक उसके पिता की मृ्त्यु के बाद हुआ था। अपनी पिता की मृ्त्यु भगवान राम के हाथों होने की घटना की उसे जानकारी नहीं थी। बाद में अपनी माता से इस घटना की जानकारी हुई तो वह श्री भगवान राम का वध करने के लिए आतुर हो गया। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने अनेक वषरें तक कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर उसे ब्रह्मा जी ने विजयी होने का वरदान दिया। वरदान पाने के बाद राक्षस निरंकुश हो गया। उससे मनुष्यों के साथ साथ देवी-देवता भी भयभीत रहने लगे। धीरे-धीरे सभी जगह उसके आंतक की चर्चा होने लगी। युद्ध में उसने देवताओं को भी परास्त करना प्रारंभ कर दिया। उसने सभी तरह के पूजा पाठ बंद करवा दिए। अत्यंत परेशान होने के बाद सभी देव भगवान शिव की शरण में गए। भगवान शिव ने सभी को आश्वासन दिलाया कि वे इस का उपाय निकालेंगे। भगवान शिव ने राक्षस तानाशाह भीम से युद्ध करने की ठानी। लड़ाई में भगवान शिव ने दुष्ट राक्षस को राख कर दिया और इस तरह अत्याचार की कहानी का अंत हुआ। भगवान शिव से सभी देवों ने आग्रह किया कि वे इसी स्थान पर शिवलिंग रूप में विराजित हो़। उनकी इस प्रार्थना को भगवान शिव ने स्वीकार किया और वे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में आज भी यहां विराजित हैं।भीमाशंकर मंदिर नागर शैली की वास्तुकला से बनी एक प्राचीन और नई संरचनाओं का समिश्रण है। इस मंदिर से प्राचीन विश्वकर्मा वास्तुशिल्पियों की कौशल श्रेष्ठता का पता चलता है। इस सुंदर मंदिर का शिखर नाना फड़नवीस द्वारा 18वीं सदी में बनाया गया था। कहा जाता है कि महान मराठा शासक शिवाजी ने इस मंदिर की पूजा के लिए कई तरह की सुविधाएं प्रदान की।नाना फड़नवीस द्वारा निर्मित हेमादपंथि की संरचना में बनाया गया एक बड़ा घंटा भीमशंकर की एक विशेषता है। अगर आप यहां जाएं तो आपको हनुमान झील, गुप्त भीमशंकर, भीमा नदी की उत्पत्ति, नागफनी, बॉम्बे प्वाइंट, साक्षी विनायक जैसे स्थानों का दौरा करने का मौका मिल सकता है। भीमशंकर लाल वन क्षेत्र और वन्यजीव अभयारण्य द्वारा संरक्षित है जहां पक्षियों, जानवरों, फूलों, पौधों की भरमार है। यह जगह श्रद्धालुओं के साथ-साथ ट्रैकर्स प्रेमियों के लिए भी उपयोगी है। यह मंदिर पुणे में बहुत ही प्रसिद्ध है। यहां दुनिया भर से लोग इस मंदिर को देखने और पूजा करने के लिए आते हैं। भीमाशंकर मंदिर के पास कमलजा मंदिर है। कमलजा पार्वती जी का अवतार हैं ।भीमशंकर ज्योतिर्लिंग नाम से दो मंदिर हैं। एक महारष्ट्र के पुणे में स्थित है और दूसरा आसाम के कामरूप जिले में स्थित है।पहले के समय में आसाम कामरूप के नाम से ही जाना जाता था। आसाम के कामरूप में ज्योतिर्लिंग स्थित है ऐसा शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता में बताया गया है।इस ज्योतिर्लिंग की कथा शिवपुराण के अध्याय 20 के श्लोक 1 से 20 तक और अध्याय 21 के श्लोक 1 से 54 तक में बताई गयी है। प्राचीन काल में भीम नामक कोई राक्षस था। वह अपनी माता कर्कटी के साथ जंगल में अकेला रहा करता था। जब भीम रक्षस बड़ा हुआ तो उसने अपनी माता से पूछा कि उसके पिता का क्या नाम है और वे कहाँ हैं?तब कर्कटी ने बताया कि तुम्हारे पिता महाबली कुम्भकर्ण थे। तुम्हारे पिता का वध श्री राम के द्वारा कर दिया गया था और उससे पहले भी मेरे पति विरोध थे। उनका वध भी श्री राम के द्वारा हुआ था। उनकी मृत्यु के पश्चात मैं अपने माता-पिता के साथ रहने लगी थी।एक बार मेरे माता – पिता ने अगस्त्य ऋषि के कोई शिष्य थे उनको आहार बनाना चाहा। वह ऋषि अत्यंत ही विष्णु भक्त थे । उसने तुरंत ही मेरे माता-पिता को भष्म कर डाला। उस घटना के बाद मैं यहाँ इस पर्वत पर अकेली रहने लगी।अपने परिजनो की मृत्यु के कारण को जानकार भीम ने देवताओं से बदला लेने का निर्णय किया। भीम ने 1000 वर्षों तक भगवान भ्रह्मा जी की घोर तपस्या की। जिससे ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने भीम से मन चाहा वर मांगने को कहा। भीम ने वरदान के रूप में और अधिक बलवान होने का वरदान माँगा था ।वरदान मिलते ही उसने सबसे पहले इंद्र सहित और भी देवताओं को युद्ध में परास्त किया और अंत में भगवान विष्णु को भी हरा दिया। इसके बाद वह पृथ्वी को जीतना चाहता था। इसके लिए उसने सबसे पहले आसाम के कामरूप के राजा सुदक्षिण पर हमला किया।राजा को पराजित कर उसे बंदीगृह में बंध कर दिया। राजा सुदक्षिण भगवान शिव जी के बहुत बड़े भक्त थे। उन्होंने कारागार में ही भगवान शिव का शिवलिंग बनाकर तपस्या करनी शुरू कर दी। इस बात की खबर भीम को लगी और उसने शिवलिंग को नष्ट करने के लिए तलवार उठाई।ऐसा करते ही शिवलिंग में से शिव भगवान जी प्रकट हो गए। शिव जी ने अपने धनुष से राक्षस की तलवार के दो टुकड़े कर दिए और एक हुंकार भरते ही शिव जी ने उस राक्षस को नष्ट कर डाला।तभी वहां देवता और ऋषि-मुनि प्रकट हो गए और शिव भगवान से बोले कि आप लोगों के कल्याण के लिए सदा के लिए यहाँ विराजमान हो जाइये। तब भगवान शिव जी उसी स्थान पर लिंग रूप में स्थापित हो गए। इस स्थान पर भीम राक्षस के साथ युद्ध करने के कारण ही इस स्थान का नाम भीमशंकर पड़ गया।ऐसा कहा जाता है कि 24 सों घंटे इस ज्योतिर्लिंग का जलाभिषेक होता रहता है। वर्षा ऋतू के समय तो ज्योतिर्लिंग पूरी तरह से जल में डूब जाता है। सैंकड़ों वर्षों से पुजारी लोग चुप-चाप ही निष्ठा भावना से ज्योतिर्लिंग की पूजा -अर्चना करते आ रहे हैं।पुणे में स्थित ज्योतिर्लिंग सह्याद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। यह स्थान पुणे से लगभग 110 किलोमीटर दूर शिराधन गाँव में है। यहीं से भीमा नदी भी निकलती है।कहा जाता है कि राक्षस को युद्ध में परास्त करके शिव भगवान को जो पसीना आया था वह पृथ्वी पर गिरा था, उसी पसीने से इस नदी का प्रादुर्भाव हुआ है। यह नदी दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर बहती हुयी रायचूर जिले में कृष्णा नदी के नाम से जानी जाती है। नासिक से इस ज्योतिर्लिंग की दूरी लगभग 120  किलोमीटर है। यह मंदिर 3250 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर मोटेश्वर महादेव नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह शिवलिंग बहुत मोटा है। इस मंदिर के लिए ऐसी मान्यता है कि जो भक्त प्रतिदिन सूर्य निकलने के बाद 12 ज्योतिर्लिंगों का नाम जपते हुए भगवान के दर्शन करता है उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।यह मंदिर अत्यंत भव्य और वास्तुकला का प्रतीक है। मराठा शासक शिवाजी ने इस मंदिर के दर्शन करने वाले भक्तगणों को कई प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं।  इस मंदिर का शिखर निर्माण पेशवाओं के राजनेता नाना फड़नवीस द्वारा 18 वीं शताब्दी में करवाया गया था। इस मंदिर का घंटा अत्यंत सुन्दर है। इस मंदिर के आस-पास कई सारे स्थान हैं जो घूमने के लिए हैं। हनुमान झील, बॉम्बे पॉइंट, नागफनी, गुप्त भीमशंकर, भीम नदी, साक्षी विनायक आदि। इस स्थान के दर्शन के लिए भक्तगण अधिकतर अगस्त से फ़रवरी महीने के बीच में आते हैं। भीमशंकर मंदिर के पास कमलजा मंदिर भी है।कमलजा, पार्वती देवी को कहा जाता है।  इस मंदिर के दर्शन के लिए भी श्रद्धालु दूर – दूर से आते हैं।  वास्तव में यह स्थल दर्शनीय और पूज्यनीय है। इन स्थलों का भ्रमण करने मात्र से ही भक्तगणों के संकट दूर हो जाते हैं 

     * ऊँकारेश्वर मन्दिर , खंडवा , मध्यप्रदेश -  ॐकारेश्वर मंदिर  मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है।  भगवान शिव के ओम ज्योतिर्लिंग  मंदिर के समीप भील जनजाति ने नगर का निर्माण किया था । मोरटक्का गांव से लगभग (14 कि॰मी॰) दूर बसा है। यह द्वीप हिन्दू पवित्र चिन्ह ॐ के आकार में बना है। यहां दो मंदिर स्थित हैं ।  मध्यप्रदेश के खंडवा जिले का नर्मदा नदी के मान्धाता द्वीप पर ॐकारेश्वर , ममलेश्वर , ॐकारेश्वर मंदिर स्थित ॐकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः  हुआ है। ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र में 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 कोटि देवता परिवार सहित निवास करते हैं तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108 प्रभावशाली शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। एक उज्जैन में महाकाल के रूप में और दूसरा ओंकारेश्वर में ओम्कारेश्वर- ममलेश्वर के रूप में विराजमान है ।ओंकारेश्वर में भील राजाओं की राजधानी थी । लंबे समय तक ओम्कारेश्वर भील राजाओं के शासन का क्षेत्र रहा था ।अहिल्याबाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता है। ओंकारेश्वर नगरी का मूल नाम 'मान्धाता' है।राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया। तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी। जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 कोटि देवता परिवार सहित निवास करते हैं। नर्मदा क्षेत्र में ओंकारेश्वर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। शास्त्र मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री देश के भले ही सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहाँ नहीं चढ़ाता उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदाजी का भी विशेष महत्व है। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुनाजी में 15 दिन का स्नान तथा गंगाजी में 7 दिन का स्नान जो फल प्रदान करता है, उतना पुण्यफल नर्मदाजी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।
ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।इस मंदिर में शिव भक्त कुबेर ने तपस्या की थी तथा शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसे शिव ने देवताओ का धनपति बनाया था। कुबेर के स्नान के लिए शिवजी ने अपनी जटा के बाल से कावेरी नदी उत्पन्न की थी। यह नदी कुबेर मंदिर के बाजू से बहकर नर्मदाजी में मिलती है, जिसे छोटी परिक्रमा में जाने वाले भक्तो ने प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा है, यही कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगाते हुए संगम पर वापस नर्मदाजी से मिलती हैं, इसे ही नर्मदा कावेरी का संगम कहते है।इस मंदिर पर प्रतिवर्ष दिवाली की बारस की रात को ज्वार चढाने का विशेष महत्त्व है इस रात्रि को जागरण होता है तथा धनतेरस की सुबह ४ बजे से अभिषेक पूजन होता हैं इसके पश्चात् कुबेर महालक्ष्मी का महायज्ञ, हवन, (जिसमे कई जोड़े बैठते हैं, धनतेरस की सुबह कुबेर महालक्ष्मी महायज्ञ नर्मदाजी का तट और ओम्कारेश्वर जैसे स्थान पर होना विशेष फलदायी होता हैं) भंडारा होता है लक्ष्मी वृद्धि पेकेट (सिद्धि) वितरण होता है, जिसे घर पर ले जाकर दीपावली की अमावस को विधि अनुसार धन रखने की जगह पर रखना होता हैं, जिससे घर में प्रचुर धन के साथ सुख शांति आती हैं I इस अवसर पर हजारों भक्त दूर दूर से आते है व् कुबेर का भंडार प्राप्त कर प्रचुर धन के साथ सुख शांति पाते हैं I नवनिर्मित मंदिर प्राचीन मंदिर ओम्कारेश्वर बांध में जलमग्न हो जाने के कारण भक्त श्री चैतरामजी चौधरी, ग्राम - कातोरा (गुर्जर दादा) के अथक प्रयास से नवीन मंदिर का निर्माण बांध के व् ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग के बीच नर्मदाजी के किनारे २००६-०७ बनाया गया हैं Iनर्मदा किनारे जो बस्ती है उसे विष्णुपुरी कहते हैं। यहाँ नर्मदाजी पर पक्का घाट है। सेतु (अथवा नौका) द्वारा नर्मदाजी को पार करके यात्री मान्धाता द्वीपमें पहुँचता है। उस ओर भी पक्का घाट है। यहाँ घाट के पास नर्मदाजी में कोटितीर्थ या चक्रतीर्थ माना जाता है। यहीं स्नान करके यात्री सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर ऑकारेश्वर-मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। मन्दिर तट पर ही कुछ ऊँचाई पर है।मन्दिर के अहाते में पंचमुख गणेशजी की मूर्ति है। प्रथम तल पर ओंकारेश्वर लिंग विराजमान हैं। श्रीओंकारेश्वर का लिंग अनगढ़ है। यह लिंग मन्दिर के ठीक शिखर के नीचे न होकर एक ओर हटकर है। लिंग के चारों ओर जल भरा रहता है। मन्दिर का द्वार छोटा है। ऐसा लगता है जैसे गुफा में जा रहे हों। पास में ही पार्वतीजी की मूर्ति है। ओंकारेश्वर मन्दिर में सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंजिल पर जाने पर महाकालेश्वर लिंग के दर्शन होते हैं। यह लिंग शिखर के नीचे है। तीसरी मंजिल पर सिद्धनाथ लिंग है। यह भी शिखर के नीचे है। चौथी मंजिल पर गुप्तेश्वर लिंग है। पांचवीं मंजिल पर ध्वजेश्वर लिंग है।तीसरी, चौथी व पांचवीं मंजिलों पर स्थित लिंगों के ऊपर स्थित छतों पर अष्टभुजाकार आकृतियां बनी हैं जो एक दूसरे में गुंथी हुई हैं। द्वितीय तल पर स्थित महाकालेश्वर लिंग के ऊपर छत समतल न होकर शंक्वाकार है और वहां अष्टभुजाकार आकृतियां भी नहीं हैं। प्रथम और द्वितीय तलों के शिवलिंगों के प्रांगणों में नन्दी की मूर्तियां स्थापित हैं। तृतीय तल के प्रांगण में नन्दी की मूर्ति नहीं है। यह प्रांगण केवल खुली छत के रूप में है। चतुर्थ एवं पंचम तलों के प्रांगण नहीं हैं। वह केवल ओंकारेश्वर मन्दिर के शिखर में ही समाहित हैं। प्रथम तल पर जो नन्दी की मूर्ति है, उसकी हनु के नीचे एक स्तम्भ दिखाई देता है। ऐसा स्तम्भ नन्दी की अन्य मूर्तियों में विरल ही पाया जाता है।श्रीओंकारेश्वरजी की परिक्रमा में रामेश्वर-मन्दिर तथा गौरीसोमनाथ के दर्शन हो जाते हैं। ओंकारेश्वर मन्दिर के पास अविमुतश्वर, ज्वालेश्वर, केदारेश्वर आदि कई मन्दिर है ।मान्धाता टापू में ही ऑकारेश्वर की दो परिक्रमाएँ होती हैं - एक छोटी और एक बड़ी। ऑकारेश्वर की यात्रा तीन दिन की मानी जाती है। इस तीन दिन की यात्रा में यहाँ के सभी तीर्थ आ जाते हैं। अत: इस क्रम से ही वर्णन किया जा रहा है।प्रथम दिन की यात्रा- कोटि-तीर्थ पर ( मान्धाता द्वीप में ) स्नान और घाट पर ही कोटेश्वर, हाटकेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर, गायत्रीश्वर, गोविन्देश्वर, सावित्रीश्वर का दर्शन करके भूरीश्वर, श्रीकालिका तथा पंचमुख गणपति का एवं नन्दी का दर्शन करते हुए ऑकारेश्वरजी का दर्शन करे। ओंकारेश्वर मन्दिर में ही शुकदेव, मान्धांतेश्वर, मनागणेश्वर, श्रीद्वारिकाधीश, नर्मदेश्वर, नर्मदादेवी, महाकालेश्वर, वैद्यनाथेश्वरः, सिद्धेश्वर, रामेश्वर, जालेश्वरके दर्शन करके विशल्या संगम तीर्थ पर विशल्येश्वर का दर्शन करते हुए अन्धकेश्वर, झुमकेश्वर, नवग्रहेश्वर, मारुति (यहाँ राजा मानकी साँग गड़ी है): साक्षीगणेश, अन्नपूर्णा और तुलसीजी का दर्शन करके मध्याह्न विश्राम किया जाता है। मध्याहोत्तर अविमुक्तेश्वर, महात्मा दरियाईनाथ की गद्दी, बटुकभैरव, मंगलेश्वर, नागचन्द्रेश्वर, दत्तात्रेय एवं काले-गोरे भैरव का दर्शन करते बाजार से आगे श्रीराममन्दिर में श्रीरामचतुष्टय का तथा वहीं गुफा में धृष्णेश्वर का दर्शन करके नर्मदाजीके मन्दिरमें नर्मदाजी का दर्शन करना चाहिये।
दूसरे दिन- यह दिन ऑकार ( मान्धाता ) पर्वत की पंचक्रोशी परिक्रमा का है। कोटितीर्थ पर स्नान करके चक्रेश्वर का दर्शन करते हुए गऊघाट पर गोदन्तेश्वर, खेड़ापति हनुमान, मल्लिकार्जुनः, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचनेश्वर, गोपेश्वरके दर्शन करते श्मशान में पिशाचमुक्तेश्वर, केदारेश्वर होकर सावित्री-कुण्ड और आगे यमलार्जुनेश्वर के दर्शन करके कावेरी-संगम तीर्थ पर स्नान - तर्पणादि करे तथा वहीं श्रीरणछोड़जी एवं ऋणमुक्तेश्वर का पूजन करे। आगे राजा मुचुकुन्द के किले के द्वार से कुछ दूर जाने पर हिडिम्बा-संगम तीर्थ मिलता है। यहाँ मार्ग में गौरी-सोमनाथ की विशाल लिंगमूर्ति मिलती है (इसे मामा-भानजा कहते हैं)। यह तिमंजिला मन्दिर है और प्रत्येक मंजिल पर शिवलिंग स्थापित हैं। पास ही शिवमूर्ति है। यहाँ नन्दी, गणेशजी और हनुमानजी की भी विशाल मूर्तियाँ हैं। आगे अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, महिषासुरमर्दिनी, सीता-रसोई तथा आनन्द भैरव के दर्शन करके नीचे उतरे। यह ऑकार का प्रथम खण्ड पूरा हुआ। नीचे पंचमुख हनुमान जी हैं। सूर्यपोल द्वार में षोडशभुजा दुर्गा, अष्टभुजादेवी तथा द्वारके बाहर आशापुरी माताके दर्शन करके सिद्धनाथ एवं कुन्ती माता ( दशभुजादेवी ) के दर्शन करते हुए किले के बाहर द्वार में अर्जुन तथा भीम की मूर्तियोंके दर्शन करे। यहाँ से धीरे-धीरे नीचे उतरकर वीरखला पर भीमाशंकर के दर्शन करके और नीचे उतरकर कालभैरव के दर्शन करे तथा कावेरी-संगम पर जूने कोटितीर्थ और सूर्यकुण्ड के दर्शन करके नौका से या पैदल (ऋतुके अनुसार जैसे सम्भव हो ) कावेरी पार करे। उस पार पंथिया ग्राम में चौबीस अवतार, पशुपतिनाथ, गयाशिला, एरंडी-संगमतीर्थ, पित्रीश्वर एवं गदाधर-भगवान के दर्शन करे। यहाँ पिण्डदानश्राद्ध होता है। फिर कावेरी पार कर के लाटभैरव-गुफा में कालेश्वर, आगे छप्पनभैरव तथा कल्पान्तभैरवके दर्शन करते हुए राजमहलमें श्रीराम का दर्शन करके औकारेश्वर के दर्शन से परिक्रमा पूरी करे। तीसरे दिन की यात्रा- इस मान्धाता द्वीप से नर्मदा पार करके इस ओर विष्णुपुरी और ब्रह्मपुरी की यात्रा की जाती है। विष्णुपुरी के पास गोमुख से बराबर जल गिरता रहता है। यह जल जहाँ नर्मदा में गिरता है, उसे कपिला-संगम तीर्थ कहते हैं। वहाँ स्नान और मार्जन किया जाता है। गोमुख की धारा गोकर्ण और महाबलेश्वर लिंगों पर गिरती है। यह जल त्रिशूलभेद कुण्ड से आता है। इसे कपिलधारा कहते हैं। वहाँ से इन्द्रेश्वर और व्यासेश्वरका दर्शन करके अमलेश्वर का दर्शन करना चाहिये। ममलेश्वर  ज्योतिर्लिंग है। ममलेश्वर मन्दिर अहल्याबाई का बनवाया हुआ है। गायकवाड़ राज्य की ओर से नियत किये हुए बहुत से ब्राह्मण यहीं पार्थिव-पूजन करते रहते हैं। यात्री चाहे तो पहले ममलेश्वर का दर्शन करके तब नर्मदा पार होकर औकारेश्वर जाय; किंतु नियम पहले ओंकारेश्वर का दर्शन करके लौटते समय ममलेश्वर-दर्शन का ही है। पुराणों में ममलेश्वर नाम के बदले अमलेश्वर उपलब्ध होता है। ममलेश्वर-प्रदक्षिणा में वृद्धकालेश्वर, बाणेश्वर, मुक्तेश्वर, कर्दमेश्वर और तिलभाण्डेश्वरके मन्दिर मिलते हैं।ममलेश्वरका दर्शन करके (निरंजनी अखाड़ेमें) स्वामिकार्तिक ( अघोरी नाले में ) अघेोरेश्वर गणपति, मारुति का दर्शन करते हुए नृसिंहटेकरी तथा गुप्तेश्वर होकर (ब्रह्मपुरीमें) ब्रह्मेश्वर, लक्ष्मीनारायण, काशीविश्वनाथ, शरणेश्वर, कपिलेश्वर और गंगेश्वरके दर्शन करके विष्णुपुरी लौटकर भगवान् विष्णु के दर्शन करे। यहीं कपिलजी, वरुण, वरुणेश्वर, नीलकण्ठेश्वर तथा कर्दमेश्वर होकर मार्कण्डेय आश्रम जाकर मार्कण्डेयशिला और मार्कण्डेयेश्वर के दर्शन करे।
भगवान के महान भक्त अम्बरीष और मुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। उस महान पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया।
ओंकारेश्वर लिंग किसी मनुष्य के द्वारा गढ़ा, तराशा या बनाया हुआ नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक शिवलिंग है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है। इसकी एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर भगवान महाकालेश्वर की मूर्ति लगी है। कुछ लोगों की मान्यता है कि यह पर्वत ही ओंकाररूप है।परिक्रमा के अन्तर्गत बहुत से मन्दिरों के विद्यमान होने के कारण भी यह पर्वत ओंकार के स्वरूप में दिखाई पड़ता है। ओंकारेश्वर के मन्दिर ॐकार में बने चन्द्र का स्थानीय ॐ इसमें बने हुए चन्द्रबिन्दु का जो स्थान है, वही स्थान ओंकारपर्वत पर बने ओंकारेश्वर मन्दिर का है। मालूम पड़ता है इस मन्दिर में शिव जी के पास ही माँ पार्वती की भी मूर्ति स्थापित है। यहाँ पर भगवान परमेश्वर महादेव को चने की दाल चढ़ाने की परम्परा है I भगवान नारद मुनि गोकर्ण नामक शिव के समीप जा बड़ी भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे। कुछ समय के बाद वही मुनि श्रेष्ठ वहां से गिरिराज विंध्य पर आये और विंध्य ने वहां बड़े आदर से उनका पूजन किया। मेरे पास यहाँ सब कुछ है कभी किसी बात की कमी नहीं होती है इस भाव को मन मैं लेकर विंध्याचल नारद जी के सामने खड़े हो गए। उसकी यह अभिमान भरी बात सुनकर नारद मुनि लम्बी सांस खींचकर चुप चाप खड़े रह गए। यह देख विंध्य पर्वत ने पुछा आपने मेरे यहाँ कोनसी कमी देखीं है। आपके इस तरह लम्बी सांस के आने का क्या कारण है ?नारद जो बोले : तुम्हारे यहाँ सब कुछ है फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखरों का भाग देवता लोक में भी पहुंचा हुआ है। किन्तु तुम्हारे शिखर कभी वहां नहीं पहुँच सकते। ऐसा कहकर नारद जी जिस तरह आये थे उसी तरह वहां से चल दिए परन्तु “विंध्य पर्वत मेरे जीवन को धिक्कार है” ऐसा सोचकर मन ही मन में संतप्त हो उठा। मैं विश्वनाथ भगवान शम्भू की कड़ी तपस्या करूँगा। ऐसा निश्चय करके विंध्य पर्वत प्रभु शिवजी की शरण में आ गए। तदनन्तर जहाँ साक्षात ओंकार की स्थिति है वहां जाकर उन्होंने भगवान् शिव की मूर्ति की स्थापना की और ६ महीने तक निरंतर भोलेनाथ शंकर की आराधना करके शिव जी के ध्यान में तत्पर हो वह अपने तपस्या के स्थान से हिले तक नही, अटल रहे। उनकी ऐसी कठोर और अविचल तपस्या देख पार्वतीपति शंकर ने विंध्याचल को अपना वह स्वरुप दिखाया जो बड़े बड़े योगी मुनियों के लिए भी सुलभ नहीं। और प्रसन्न हो शिव जी ने उससे कहा की विंध्याचल तुम मनोवांछित वर मांगो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हे तुम्हारी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति कराने आया हूँ। विंध्य ने प्रभु की स्तुति की और बोले आप सदा ही भक्त वत्सल है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो मुझे ऐसी बुद्धि प्रदान करे जिससे सभी कार्य सिद्ध हो सके। भगवान् शिव ने उन्हें उनका मनचाहा वर दे दिया और कहा पर्वत राज विंध्य तुम जैसा चाहो वैसा करो। उसी समय देवता और शुद्ध अंतःकरण वाले ऋषि मुनि वहां पधारे और शंकर जी की पूजा अर्चना करके के पश्चात बोले प्रभु आप यहाँ स्थिर रूप से निवास कर इस स्थान को सदा के लिए पुण्यवान बना दे। उन सभी ऐसी प्रार्थना सुन शिवजी प्रसन्न हो गए और अपने जनकल्याण के लिए उन्होंने उनकी बात स्वीकार कर ली। उनके तथास्तु बोलते ही वहां जो ओंकार लिंग था वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया।प्रणव में जो सदाशिव थे ओंकार नाम से प्रसिद्ध हुए और मूर्ति में जो शिव ज्योति प्रतिष्ठित हुई उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई। इस प्रकार यहाँ ओंकार और परमेश्वर शिवलिंग दोनों भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले है। उसी समय वहां देवो और ऋषियों ने दोनों शिवलिंग की पूजा की और प्रभि शंकर को प्रसन्न कर बहुत से वर प्राप्त किये। इसके बाद देवता अपने अपने लोको को चले गए और विंध्य ने भी अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और मानसिक वेदना से मगवान् शिव की पूजा अर्चना करता है वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता अर्थात जन्म मरण से मुक्त हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
        * : घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग वेरुल  - हैदराबाद के अंतर्गत वेरुल के देवगिरि पर्वत पर घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित है । शिवपुरण कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 32 - 33 के अनुसार ऋषि भारद्वाज कुल में उत्पन्न सुशर्मा की पत्नी सुदेहा  और घुश्मा थी ।घुश्मा से पुत्र का जन्म हुआ था । सुशर्मा की दूसरी पत्नी घुश्मा की भक्ति और निश्छल प्रभाव के कारण भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति होने के कारण घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग ख्याति हुआ । घुश्मा ज्योतिर्लिंग को घुश्मेश्वर, घुश्मेश , तथा तलाव को शिवालय कहा गया है । घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर कहा जाता है ।दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट ऋषि  भारद्वाज कुल के  सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी  सुदेहा थी । दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी।ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति नहीं सकी थी । सुदेहा संतान की बहुत  इच्छुक थी। सुदेहा  ने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन घुश्मा  से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।पहले  सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान्‌ शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।भगवान शिवजी की कृपा से उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा  इस घर में कुछ नही  है । सब कुछ घुश्मा का है। अब तक सुदेहा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। मेरे पति पर  उसने अधिकार जमा लिया। संतान  उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक  बड़ा हो रहा था। घुश्मा के पुत्र का विवाह हो गया। एक दिन सुदेहा ने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को विसर्जित करती थी। सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान्‌ शिव की आराधना में तल्लीन रहने के बाद पूजा समाप्त करने के बाद घुश्मा पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा।जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान्‌ शिव  वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान्‌ शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान्‌ शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहाँ घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा पुराणों में  वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक  के लिए अमोघ फलदाई है। घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग का उप ज्योतिर्लिंग व्याघ्रेश्वर , वागेश्वर सरयू तट पर पिंडारी में स्थित है । भगवान शिव के बाघ रूप धारण करने वाले स्थान को व्याघ्रेश्वर बागीश्वर और बागेश्वर के रूप में जाना जाता है। शिव पुराण के मानस खंड के अनुसार इस नगर को शिव के गण चंडीश ने शिवजी की इच्छा के अनुसार बसाया था। स्कन्द पुराण के अनुसार बागेश्वर सरयू के तट पर स्वयंभू शिव की इस भूमि को उत्तर में सूर्यकुण्ड, दक्षिण में अग्निकुण्ड के मध्य नदी विशर्प जनित प्राकृतिक कुण्ड सीमांकित कर पापनाशक तपस्थली तथा मोक्षदा तीर्थ के रूप में धार्मिक मान्यता प्राप्त है। कत्यूरी राजवंश काल से (७वीं सदी से ११वीं सदी तक) सम्बन्धित भूदेव का शिलालेख के अनुसार सन् १६०२ में राजा लक्ष्मी चन्द ने बागनाथ के मुख्य मन्दिर  का निर्माण कराया था ।   सन् १८४७ में इ. मडेन द्वारा हिमालयी हिमनदों की जानकारी मिलने के बाद पिण्डारी ग्लेशियर को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली और बागेश्वर विदेशी पर्यटकों एवं पर्वतारोहियों का विश्रामस्थल भी बना।१९वीं सदी के प्रारम्भ में बागेश्वर आठ-दस घरों की एक छोटी सी बस्ती थी। सन् १८६० के आसपास यह स्थान २००-३०० दुकानों एवं घरों वाले एक कस्बे का रूप धारण कर चुका था।  एटकिन्सन के हिमालय गजेटियर में वर्ष १८८६ में इस स्थान की स्थायी आबादी ५०० बतायी गई है। सरयू और गोमती नदी में दो बडे़ और मजबूत लकड़ी के पुलों द्वारा नदियों के आरपार विस्तृत ग्राम्यांचल के मध्य आवागमन सुलभ था। अंग्रेज लेखक ओस्लो के अनुसार १८७१ में आयी सरयू की बाढ़ ने नदी किनारे बसी बस्ती को  प्रभावित नहीं किया, वरन् दोनों नदियांे के पुराने पुल भी बहा दिये। १९१३ में वर्तमान पैदल झूला पुल बना।
 विश्व में भगवान शिव की आराधना विभिन्न रूपों की जाती है तथा भारत देश में देवों के देव महादेव की पूजा अर्चना करने में लाखों लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार ज्योतिर्लिंग मंदिर में जाकर दर्शन ,उपासना कर मनोवांक्षिय फल प्राप्त करते है । ज्योतिर्लिंग शब्द का “ज्योति” और शब्द “लिंग” बनता है!  ज्योति का अर्थ चमक और लिंग  शक्ति भगवान शिव शंकर के स्वरूप को प्रकट करता है! भगवान शिव के प्रकाशमान दिव्य रूप को प्रकट होना ज्योतिर्लिंग है! भगवान शिव को दूसरे अर्थों में ज्योतिर्लिंग माना जाता है  ज्योतिर्लिंग स्वयंभू और  खुद से प्रकट और  खुद से प्रकट होने वाले ज्योतिर्लिंग  है! ❤शास्त्रों में ज्योतिर्लिंग के बारे में अलग-अलग वर्णन है । लिंग पुराण तथा शिवपुराण,वेदों ,पुरणों ,शास्त्रों के अनुसार  सृष्टि के प्रारंभ में पृथ्वी पर 12 ज्योति पिंड धरती पर गिरने से धरती पर प्रकाश फैल गया था ।  12 ज्योति पिंड  को 12 ज्योतिर्लिंग के नाम से ख्याति मिली है ।

    



 




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