बुधवार, जून 02, 2021

घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग : मनोकामना सिद्ध स्थल...

        
        भारतीय वाङ्गमय शास्त्रों और पुरणों में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग का उल्लेखनीय  है । मनोकामनाएं तथा मानवीय मूल्यों का स्थल घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग है ।आंध्रप्रदेश के  हैदराबाद  अंतर्गत वेरुल  देवगिरि पर्वत पर घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित है । शिवपुरण कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 32 - 33 के अनुसार ऋषि भारद्वाज कुल में उत्पन्न ब्राह्मण  सुशर्मा की पत्नी सुदेहा  और घुश्मा थी ।घुश्मा से पुत्र का जन्म हुआ था । सुशर्मा की दूसरी पत्नी घुश्मा की भक्ति और निश्छल प्रभाव से भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति होने के कारण घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग ख्याति हुआ । घुश्मा ज्योतिर्लिंग को घुश्मेश्वर, घुश्मेश , तथा तलाव को शिवालय कहा गया है । घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग को , घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर कहा जाता है ।दक्षिण देश में देवगिरि पर्वत के निकट ऋषि  भारद्वाज कुल के  सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण सुशर्मा रहता था। उसकी पत्नी  सुदेहा थी । दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। परंतु सुशर्मा  को  संतान नहीं थी।ज्योतिष-गणना से  सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति नहीं  थी । सुदेहा संतान की बहुत  इच्छुक थी। सुदेहा  ने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन घुश्मा  से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।पहले  सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। सुशर्मा ने अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। घुश्मा भगवान्‌ शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ भगवान शिव की  पूजन करती थी।भगवान शिवजी की कृपा से उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा  इस घर में कुछ नही  है । सब कुछ घुश्मा का है। अब तक सुदेहा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। मेरे पति पर  उसने अधिकार जमा लिया। संतान  उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक  बड़ा हो रहा था। घुश्मा के पुत्र का विवाह हो गया। एक दिन सुदेहा ने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को विसर्जित करती थी। सुबह होते सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान्‌ शिव की आराधना में तल्लीन रहने के बाद पूजा समाप्त करने के बाद घुश्मा पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा । इसी समय भगवान्‌ शिव  वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान्‌ शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं मेरी सुदेहा अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है परंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप सुदेहा को  क्षमा करें और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना है कि  लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान्‌ शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे।  शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण  घुश्मेश्वर से विख्यात हुए। घुश्मा द्वारा स्थापित शिवालय पर भगवान शिव ने घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग प्रकट हुए थे ।घुश्मा ज्योतिर्लिङ्ग को घुश्मेश, घुश्मेश्वर , घृष्णेश्वर कहा गया है ।उत्तराखंड का वागेश्वर जिले के देवालय पिंडारी स्थित  मार्कण्डेय ऋषि की तपो भूमि और सरयू तथा गोमती के संगम पर घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग का उप ज्योतिर्लिंग व्याघ्रेश्वर  स्थित है । भगवान शिव के बाघ रूप धारण करने वाले स्थान को व्याघ्रेश्वर , बागीश्वर और बागेश्वर के रूप में ख्याति  है। शिव पुराण के मानस खंड के अनुसार देवालय नगर को शिव के गण चंडीश ने शिवजी की इच्छा के अनुसार बसाया था। स्कन्द पुराण के अनुसार बागेश्वर सरयू के तट पर स्वयंभू शिव की देवालय भूमि  के उत्तर में सूर्यकुण्ड, दक्षिण में अग्निकुण्ड के मध्य नदी विशर्प जनित प्राकृतिक कुण्ड सीमांकित कर पापनाशक तपस्थली तथा मोक्षदा तीर्थ स्थल  है। कत्यूरी राजवंश काल से ७वीं सदी से ११वीं सदी तक  भूदेव का शिलालेख के अनुसार सन् १६०२ में राजा लक्ष्मी चन्द ने बागनाथ  मन्दिर  का निर्माण नागर शैली में कराया था ।   सन् १८४७ में इ. मडेन द्वारा हिमालयी हिमनदों की जानकारी मिलने के बाद पिण्डारी ग्लेशियर को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली और बागेश्वर विदेशी पर्यटकों एवं पर्वतारोहियों का विश्रामस्थल  बना।१९वीं सदी के प्रारम्भ में बागेश्वर आठ-दस घरों की बस्ती थी। सन् १८६० के वागेश्वर स्थान विकसित हुई थी । एटकिन्सन के हिमालय गजेटियर में वर्ष १८८६ में   गोमती नदी में लकड़ी के पुलों द्वारा नदियों के आरपार विस्तृत ग्राम्यांचल के मध्य आवागमन सुलभ था। अंग्रेज लेखक ओस्लो के अनुसार १८७१ में आयी सरयू की बाढ़ ने नदी किनारे बसी बस्ती को  प्रभावित नहीं किया था । १९१३ में वर्तमान पैदल झूला पुल बना। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग और व्याघ्रेश्वर उप लिंग का दर्शन , उपासना करने से मनोवांक्षित तथा भुक्ति मुक्ति  प्राप्त होते है ।
                                          व्याघ्रेश्वरर मंंदिर
                              सरयू - गोमती नदी का संगम 

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