पुरणों , उपनिषदों तथा तंत्र साधना ग्रंथो में माथा कामख्या को शक्ति पीठ का उल्लेख किया गया है । सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय का मूल स्थल कामरूप है ।असम की राजधानी दिसपुर के समीप कामरूप जिले का गुवाहाटी से ८ किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत की चोटी पर कामाख्या मंदिर है । कामख्या मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर महत् तांत्रिक महत्व है। प्सतयुग में कामाख्या में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है। देश भर मे अनेकों सिद्ध स्थान है जहाँ माता सुक्ष्म स्वरूप मे निवास करती है प्रमुख महाशक्तिपीठों मे माता कामाख्या मंदिर सुशोभित है । शक्तिपीठ तंत्र- मंत्र, योग-साधना के सिद्ध स्थान है। या देवी सर्व भूतेषू मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।विश्व के तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष मे अम्बूवाची योग पर्व वरदान है। अम्बूवाची पर्व भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है । शास्त्रों के अनुसार सतयुग में अम्बूवाची पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष आषाढ़ में मनाया जाता है। देवी कामाख्या मासिक धर्म चक्र के माध्यम से तीन दिनों के लिए गुजरने के दौरान, कामाख्या मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते है । अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होने के कारण और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है । कामाख्या तंत्र के अनुसार -योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा।रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥शरणागतदिनार्त परित्राण परायणे । सर्वस्याति हरे देवि नारायणि नमोस्तु ते । `राजराजेश्वरी कामाख्या रहस्य' एवं `दस महाविद्याओं' ग्रंथ के अनुसार अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद और दर्शन भी निषेध हो जाता है। अम्बूवाची पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना , सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का स्थल रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है। असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा।नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गयी थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था। आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र 'नद' के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है । शैलदीप तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से जाना जाता है । शैलद्वीप पर समाधिस्थ सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का अत्यन्त महत्व है । आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं।इस क्षेत्र में सभी वर्ण की कौमारियां वंदनीय हैं । पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाने पर रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। वाममार्ग साधना का सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में सिद्धि प्राप्त की थी ।
कामाख्या मंदिर तंत्र विद्या और सिद्धि का केंद्र सबसे बड़ा केंद्र है । कामाख्या शक्तिपीठ गुवाहाटी (असम) के पश्चिम में 8 कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है । माता सती के प्रति भगवान शिव का मोह भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के 51 भाग किए थे ।जिस-जिस जगह पर माता सती के शरीर के अंग गिरे, वे शक्तिपीठ है । नीलांचल पर्वत की चोटी पर माता सती का गुह्वा मतलब योनि भाग गिरने के कारण कामाख्या महापीठ की उत्पत्ति हुई थी । नीलांचल पर्वत पर देवी का योनि भाग होने की वजह से माता रजस्वला होती हैं ।कामाख्या मंदिर गर्भ गृह में देवी की योनि कुंड फूलों से ढका रहता है । मंदिर में माता कामख्या की मूर्ति स्थापित है ।कामख्या पीठ में मां का योनि भाग गिरने माता हर साल तीन दिनों के लिए रजस्वला होने के दौरान मंदिर को बंद कर दिया जाता है । तीन दिनों के बाद मंदिर को उत्साह के साथ खोला जाता है ।माता पर चढ़े कपड़े को गीला वस्त्र को भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है । प्रसाद को अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं । देवी के रजस्वला होने के दौरान प्रतिमा के आस-पास सफेद कपड़ा बिछा दिया जाता है । तीन दिन बाद मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं । माता के रज से लाल रंग से भीगा वस्त्र को भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है ।असुर राज नरक ने कामाख्या देवी के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रखा था । देवी कामख्या ने नरक के सामने एक शर्त में कहा कि अगर नरक एक रात में ही इस जगह पर मार्ग, घाट, मंदिर आदि सब बनवा देने के बाद देवी उससे विवाह कर लेंगी । नरक ने शर्त पूरी करने के लिए भगवान विश्वकर्मा को बुलाया और काम शुरू कर दिया था ।काम पूरा होता देख देवी ने रात खत्म होने से पहले ही मुर्गे के द्वारा सुबह होने की सूचना दिलवा दी और विवाह नहीं हो पाया । . पर्वत के नीचे से ऊपर जाने वाले मार्ग को नरकासुर मार्ग के नाम से जाना जाता है और जिस मंदिर में माता की मूर्ति स्थापित है । वहां कामादेव मंदिर स्थित है । कामाख्या मंदिर में नरकासुर के अत्याचारों से कामाख्या के दर्शन में वशिष्ठ ऋषि को कई परेशानियां उत्पन्न होने लगी थीं, जिस बात से क्रोधित होकर महर्षि वशिष्ट ने इस जगह को श्राप दे दिया था । वशिष्ठ के श्राप के कारण समय के साथ कामाख्या पीठ लुप्त हो गया था ।16वीं शताब्दी में कामरूप प्रदेश के राज्यों में युद्ध होने लगे, थे । कूचविहार के राजा विश्वसिंह जीत गए परंतु युद्ध में विश्व सिंह के भाई खो गए थे । विश्व सिंह ने अपने भाई को ढूंढने के लिए वे घूमत-घूमते नीलांचल पर्वत पर पहुंच गए। विश्व सिंह को वृद्ध महिला ने जगह के महत्व और यहां कामाख्या पीठ होने के बारे में बताया ।. राजा ने इस जगह की खुदाई शुरु करने पर कामदेव का बनवाए हुए कामाख्या मंदिर का निचला हिस्सा बाहर निकला था । राजा ने कामदेव द्वारा निर्मित कामख्या मंदिर के पूण : मंदिर बनवाया था । 1564 में साल राजा विश्वसिंह के पुत्र नरनारायण ने कामाख्या मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था । कामाख्या मंदिर से दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर में कामाख्या शक्तिपीठ के उमानंद भैरव ब्रह्मपुत्र नदी के टापू पर स्थित है ।.उमानंद भैरव दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है । कामाख्या मंदिर तंत्र विद्या का सबसे बढ़ा केंद्र माना जाता है । अंबुवासी के अवसर पर साधु-संत और तांत्रिक आकर तंत्र साधना करते हैं । आम्बुबाजी के अवसर पर मां के रजस्वला होने का पर्व मनाया जाता है और ब्रह्मपुत्र नदी का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है ।मानवीय जीवन और प्रकृति का समन्वय स्थापित करने का मूल कामाख्या है । यह स्थल सृष्टि , तंत्र मंत्र और प्रकृति की उपासना स्थल के रूप में सुविख्यात है ।
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