वेदों और संगीत ग्रंथो में संगीत को ब्रह्मांड की आत्मा है ।शंगीत शास्त्रो के अनुसार ब्रह्मा जी ने माता सरस्वती और भगवान शिव ने देवर्षि नारद को संगीत की शिक्षा दी थी । सैम वेद का उप वेद गंधर्व वेद , ऐतरेय अरण्यक , जैमिनी ब्राह्मण संहिता द्वारा संगीत का उल्लेख किया गया है ।कर्णप्रिय संगीत की ध्वनि वस्तुओं के टकराने से उत्पन्न होने की प्रक्रिया को आहट नाड और स्वयं उत्पन्न होते अनाहद नाद है । प्रगैतिहासिक काल से भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते।भारतीय संगीत का आदि रूप साम वेद में मिलता है। संगीत 2000 ई .पू . पू . तथा भारतीय संगीत 4000 वर्ष प्राचीन है। वेदों में वाण, वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में बाकुर, नाडी, तूणव, शंख का उल्लेख है। यजुर्वेद में 30वें कांड के 19वें और 20वें मंत्र में कई वाद्य बजानेवालों का उल्लेख है । सामवेद में संगीत को "स्वर" को "यम" कहते थे । छांदोग्योपनिषद् में "का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच" (छा. उ. 1। 8। 4)। साम का "स्व" अपनापन "स्वर" है। "तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्" (बृ. उ. 1। 3। 25) में उल्लेख मिलता है । वैदिक काल में भारतीय संगीत समृद्ध होती रही है । संगीत सुमेरु, बवे डिग्री (बाबल या बैबिलोनिया), असुर (असीरिया) और सुर सीरिया है। चीन में प्राय: पाँच स्वरों के ही गान मिलते हैं। सात स्वरों का उपयोग करनेवाले बहुत ही कम गान हैं। उनकी एक प्रकार की बहुत ही प्राचीन स्वरलिपि है। बौद्धों के पहुंचने पर यहाँ के संगीत पर कुछ भारतीय संगीत का प्रभाव पड़ा है । इब्रानी संगीत प्राचीन है। इब्रानी संगीत पर सुमेरु - बैबिलोनिया इत्यादि के संगीत का प्रभाव पड़ा। इब्रानी लोग मंदिरों में गान साम करते थे। इब्रानी संगीत तत वाद्य को किन्नर" कहते थे।मिस्र देश का संगीत के मानव में संगीत देवी आइसिस आई है।मिश्र में तत वाद्य बीन कहलाता था। अफलातून, मिश्र देश में अध्ययन के लिए गया था । 300 वर्ष ई.पू. मिस्र में लगभग 600 वादकों का एक वाद्यवृंद था । मिस्र से पाइथागोरस और अफलातून ने संगीत सीखा था। यूनान के संगीत पर मिस्र के संगीत का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है । यूनान में संगीत कला के रूप में विकसित हुआ। यूरोप में पाइथागोरस ने गणित के नियमों द्वारा स्वरों के स्थान को निर्धारित किया था । 16वीं शती से यूरोप में संगीत को स्वरसंहति (हार्मनी) कहते हैं। संहति में कई स्वरों काके मधुर मेल होता है, जैसे स, ग, प (षड्ज, गांधार, पंचम) की संगति। इस प्रकार के एक से अधिक स्वरों के गुच्छे को "संघात" (कार्ड) कहते हैं। संघात के आधार पर यूरोप के आरकेष्ट्रा (वृंदवादन) का विकास हुआ है। संगीत रसवान ध्वनि तथा कला का एक रूप है ।संगीत पक्षियों के चहचहाने , बारिश की बूंदों , हवा के बहने , हिलने वाले पत्ते , जमीन पर पड़े सूखे पत्तों के टकराने से निकलने वाली ध्वनि में संगीत है। संगीत की सुखदायक प्रकृति की जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से हुई थी ।संगीत की विभिन्न शैलियों और दुनिया से संगीत के विभिन्न रूपों में प्रदर्शित करने के कारण विश्व संगीत दिवस की शुरुआत 21 जून 1982 को फ्रांस में हुई थी। फ्रांस में संगीत दिवस को फेटे डे ला कर्णप्रिय संगीत की ध्वनि वस्तुओं के टकराने से उत्पन्न होने की प्रक्रिया को आहट नाड और स्वयं उत्पन्न होते अनाहद नाद है । प्रगैतिहासिक काल से भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते।भारतीय संगीत का आदि रूप साम वेद में मिलता है। विश्व संगीत 2000 ई .पू . पू . तथा भारतीय संगीत 4000 वर्ष प्राचीन है। वेदों में वाण, वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में बाकुर, नाडी, तूणव, शंख का उल्लेख है। यजुर्वेद में 30वें कांड के 19वें और 20वें मंत्र में कई वाद्य बजानेवालों का उल्लेख है । सामवेद में संगीत को "स्वर" को "यम" कहते थे । छांदोग्योपनिषद् में "का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच" (छा. उ. 1। 8। 4)। साम का "स्व" अपनापन "स्वर" है। "तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्" (बृ. उ. 1। 3। 25) में उल्लेख मिलता है । वैदिक काल में भारतीय संगीत समृद्ध होती रही है । संगीत सुमेरु, बवे डिग्री (बाबल या बैबिलोनिया), असुर (असीरिया) और सुर सीरिया है। चीन में प्राय: पाँच स्वरों के ही गान मिलते हैं। सात स्वरों का उपयोग करनेवाले बहुत ही कम गान हैं। उनकी एक प्रकार की बहुत ही प्राचीन स्वरलिपि है। बौद्धों के पहुंचने पर यहाँ के संगीत पर कुछ भारतीय संगीत का भी प्रभाव पड़ा।यूनान में संगीत एक कला के रूप में विकसित हुआ। यूरोप में पाइथागोरस ने गणित के नियमों द्वारा स्वरों के स्थान को निर्धारित किया। 16वीं शती से यूरोप में संगीत का एक नई दिशा में विकास हुआ। इसे स्वरसंहति (हार्मनी) कहते हैं। संहति में कई स्वरों का मधुर मेल होता है, जैसे स, ग, प (षड्ज, गांधार, पंचम) की संगति। इस प्रकार के एक से अधिक स्वरों के गुच्छे को "संघात" (कार्ड) कहते हैं। संघात के सब स्वर एक साथ भिन्न भिन्न वाद्यों से निकलकर एक में मिलकर एक मधुर कलात्मक वातावरण की सृष्टि करते हैं। इसी के आधार पर यूरोप के आरकेष्ट्रा (वृंदवादन) का विकास हुआ है। स्वरसंहति एक विशिष्ट लक्षण है जिससे पाश्चात्य संगीत पूर्वीय संगीत से भिन्न हो जाता है। संगीत रसवान ध्वनि तथा कला का एक रूप है ।संगीत पक्षियों के चहचहाने , बारिश की बूंदों , हवा के बहने , हिलने वाले पत्ते , जमीन पर पड़े सूखे पत्तों के टकराने से निकलने वाली ध्वनि में संगीत है। संगीत की सुखदायक प्रकृति की जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से हुई थी ।संगीत की विभिन्न शैलियों और दुनिया से संगीत के विभिन्न रूपों में प्रदर्शित करने के कारण विश्व संगीत दिवस की शुरुआत 21 जून 1982 को फ्रांस में हुई थी। फ्रांस में संगीत दिवस को फेटे डे ला म्यूजिक कहा जाता है। 1982 को फ्रांस में संगीत प्रेमियों की मांग पर तत्कालीन सांस्कृतिक मंत्री ने संगीत दिवस मनाने की घोषणा कर दी थी । संगीत साधन तथा साधना है। प्रतिदिन प्रातः -शाम संगीत सुनने से उच्च रक्तचाप और धीमी गति का संगीत सुनने से स्ट्रोक की समस्या दूर होती है।संगीत सुनने से शांति मिलती है जिसके कारण तनाव और अनिद्रा की समस्या से छुटकारा मिलता है।संगीत शरीर और आत्मा का उन्नयन करता है।म्यूजिक कहा जाता है। 1982 को फ्रांस में संगीत प्रेमियों की मांग पर तत्कालीन सांस्कृतिक मंत्री ने संगीत दिवस मनाने की घोषणा कर दी थी । संगीत साधन तथा साधना है। प्रतिदिन प्रातः -शाम संगीत सुनने से उच्च रक्तचाप और धीमी गति का संगीत सुनने से स्ट्रोक की समस्या दूर होती है।संगीत सुनने से शांति मिलती है जिसके कारण तनाव और अनिद्रा की समस्या से छुटकारा मिलता है।संगीत शरीर और आत्मा का उन्नयन करता है। संगीत का प्रारंभ ऊँ से हुई है । श्री लंका में हेल सभ्यता के रावणहत्था , चेकोस्लोवाकिया में 1825 ई. से 1904 ई. तक , भारत में 200ई.पू. से 200 ई. तक भरत द्वारा भरत नाट्य शास्त्र , सिंधुघाटी सभ्यता में वसुरी वादन और नृत्य संगीत का विकास था । भारतीय संगीत में संगम संगीत और जातिगान संगीत विकसित था । 6 थीं शदी में मतंग ऋषि द्वारा वृहदशी , 10वी शदी में ईरान के मुहमबद इकबाल , 13वी शदी में सारंगदेव का संगीत रत्नाकर ,16वी शदी में रामामात्य द्वारा स्वर मेला कलानिधि ,17 वी शदी में वेंकट मखिन ने चतुर्दडी प्रकाशिका का महत्वपूर्ण योगदान है । 14 वी शदी में शास्त्रीय संगीत , 13 वी शदी में ध्रुपद संगीत का उदय हुआ था । 13 वी शादी में ठुमरी वाराणसी घराने , लखनऊ घराने , बिहार के दरभंगा घराने , बेतिया घराने तलवंडी घराने मध्य प्रदेश का ग्वालियर घराने , इंदौर , जयपुर ,पटियाला आगरा घरानों में ठुमरी , ध्रुपद का उदय हुआ है । बिहार में सोहर , विदाई गीत , छठ गीत , विवाह गीत की भाषा मागही भोजपुरी , मैथिली , वज्जिका , वंजिका में गया जाता है । असम में जिकिर , नागालैंड में हिलीयमलयु, न्यूल्यु , हेरेल्यु , तमिलनाडु में नाददपूरापाद , , उड़ीसाA में पाला , उत्तराखंड में बसंत गीत ,असम में बोरगीत आदि राज्यों में गीत विभिन्न रूपों में संगीत है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें